
कभी समाजवादी पार्टी की बैठकों में अगर कोई सबसे ऊँचे स्वर में बोल सकता था, तो वो थे मोहतरम आज़म खान साहब। मुलायम सिंह के दौर में उनका रुतबा ऐसा था कि रामगोपाल हों या शिवपाल, सबकी जुबान पर ताला लग जाता था।
“गाय पहले, पार्टी बाद में”: राजा ने छोड़ी बीजेपी, गाय ने नहीं छोड़ा उनका साथ
अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे, पर चाचा को आँख दिखाने की हिम्मत न उन्होंने की, न उनके बगल में बैठे किसी विधायक ने। चचा एक बार पार्टी छोड़ के गए, पार्टी की अधिकृत उम्मीदवार जयाप्रदा को विरोद किया तब भी किसी नेता ने मुहं नहीं खोला। आज़म जब वापस पार्टी में आये तब मुलायम और उन्होंने संग आंसू बहाए और फिर आज़म का पार्टी में रसूख कायम हो गया।
मुस्लिम नेता तो थे और भी… पर खड़े न हो पाए
सपा में मुस्लिम नेताओं की कमी नहीं थी। काजी रशीद मसूद, वकार शाह, अहमद हसन और एस.टी. हसन जैसे दिग्गज ज़मीन से जुड़े नेता थे। शाफिकुर्रहमान बर्क जैसे ज़ुबान के तेज़ भी थे।
लेकिन इन सबके सामने आज़म खान एक “वन मैन शो” थे। उन्होंने कभी किसी को पनपने ही नहीं दिया — सियासत में भी और मंच पर भी।
आज जब जेल में हैं, तब सब मौन व्रत में क्यों हैं?
कहते हैं “साथ चलने वाले बहुत होते हैं, पर पीछे खड़े होने वाले कम।”
अब जब आज़म खान सालों से जेल की सलाखों के पीछे हैं, तो वही साथी जो उनकी बातों पर ताली बजाते थे, अब कान में ईयरप्लग डालकर चुप बैठे हैं।
एक अदद मुस्लिम नेता भी ऐसा नहीं जो खुलकर बोले — “हम आज़म के साथ हैं।”
शायद डर है या वक्त का तकाज़ा
कुछ कहते हैं पार्टी अब “न्यू एज” की ओर बढ़ गई है। कुछ मानते हैं कि सत्ता की राजनीति में जो आज भारी दिखे, उसी से नज़दीकी रखो। शायद यही वजह है कि आज़म खान जैसे कड़क नेता की सियासी तस्वीर अब सिर्फ चारदीवारी में टंगी रह गई है।
जब जलवा था, तब सब चुप थे… अब सब गायब हैं!
राजनीति की मेज़ पर वक्त के साथ चौरस खेल बदलता है। आज़म खान कभी सपा का वो सिक्का थे जो हर जगह चलता था। अब वो सिक्का खोटा नहीं, पर चलन से बाहर ज़रूर हो गया है।